कोई भी व्यक्ति जो पीड़ित हैं यदि पुलिस अधिकारी के समक्ष जाकर घटना से संबंधित प्रथम सूचना की इत्तिला दे तो उसी को प्रथम सूचना रिपोर्ट कहते हैं जब पुलिस अपने अन्वेषण के दौरान उस इत्तिला से संतुष्ट होकर उस रिपोर्ट को लिखित में दर्ज कर लेता हैं तब वह प्रथम सूचना रिपोर्ट बन जाती हैं
परंतु अब प्रश्न उठता हैं की अन्वेषण क्या हैं
अन्वेषण-दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(h) में अन्वेषण को परिभाषित किया गया हैं “अन्वेषण के अंतर्गत वे सब कार्यवाहियों को सम्मिलित किया जाता हैं, जो दंड प्रक्रिया संहिता के अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा या (मजिस्ट्रेट से भिन्न) किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा निमित्त प्राधिकृत किया गया हैं, ओर उसे साक्ष्य को एकत्र करने के लिए की जाए।
प्रथम सूचना रिपोर्ट पुलिस को कोन दे सकता हैं
साधारणतय: वह व्यक्ति जो घटना से पीड़ित हुआ हैं वह FIR दर्ज करा सकता हैं, परंतु यदि वह व्यक्ति किसी कारणवश पुलिस स्टेशन नही आ पता या उसकी तरफ से कोई अन्य व्यक्ति भी FIR दर्ज करा सकता हैं, उस व्यक्ति को लिखित में अपनी सूचना पुलिस थाने के भरसाधक अधिकारी को देनी होगी व उस पर स्वयं के हस्ताक्षर करने होंगें।
FIR कब देनी चाहिए, व FIR की कोई समय सीमा होती हैं?
जब कोई भी व्यक्ति पीड़ित होता हैं तब उसको FIR 24 घण्टों के अंदर दे देनी चाहिए परंतु यदि किसी भी कारणवश 24 घण्टों के अंदर FIR नही दे पाते तो पुलिस को परिस्थितियों से अवगत करा कर व उचित कारण बताते हुए FIR बाद में दर्ज करायी जा सकती हैं।
क्या पुलिस अधिकारी द्वारा FIR दर्ज करना अनिवार्य उपबन्ध हैं?
यदि कोई भी व्यक्ति जो पीड़ित हैं अपनी सूचना दर्ज करना चाहता हैं, ऐसे अपराध से संबंधित जो संज्ञेय अपराध हो, ओर घटना सच्ची हैं, तब पुलिस अधिकारी का यह कर्तव्य हैं की वो उस पीड़ित व्यक्ति की FIR दर्ज कर के उचित क़ानूनी कार्यवाही करें। परंतु यदि पुलिस अधिकारी को लगता हैं की ये मामला संज्ञेय मामला नहीं हैं, झूठी घटना पर आधारित हैं तब पुलिस अधिकारी बाध्य नही हैं की वो FIR दर्ज करे।
FIR के आवश्यक तत्त्व:
- FIR किसी भी संज्ञेय अपराध से संबंधित व वास्तविक होनी चाहिए:
पुलिस अधिकारी केवल उन्ही FIR को दर्ज करने के लिए बाध्य है जो संज्ञेय हैं, ओर वास्तविक रूप से घटना घटित हुई हैं, जिसमे पीड़ित पक्ष को हानि हुई हैं, यदि कोई व्यक्ति जो सिर्फ पुलिस का समय व्यर्थ करने के लिए व गुमराह कर के FIR दर्ज करना चाहेगा तब पुलिस उस व्यक्ति की FIR दर्ज नही करेगी। - FIR की घटना लिखत व हस्ताक्षरित में होनी चाहिए:
वह व्यक्ति जो FIR दर्ज कर रहा हैं उसका कर्तव्य की वह उस घटना को लिखित में पुलिस अधिकारी को दे व लिखित घटना को पीड़ित व्यक्ति के द्वारा भली भांति पढ गया हो व उस घटना से वह अवगत हो उसमे, उस पर अपने स्वयं के हस्ताक्षर भी दर्ज करे। - FIR जनरल डायरी में रिकॉर्ड होनी चाहिए:
FIR जनरल डायरी में रिकॉर्ड होनी चाहिए, अर्थात पुलिस अधिकारी FIR दर्ज कर उसे जनरल डायरी में भी लिखेगा। - घटना व अभियुक्तों का पूर्ण उल्लेख होना चाहिए:
FIR में घटना का पूर्ण उल्लेख होना चाहिए व समय व दिनाँक व अभियुक्तों का पूर्ण उल्लेख होना चाहिए।
घटना के मुख्य बिन्दुओ का उज़ागर होना चाहिए।व अभियुक्तों का पूरा नाम पता सहित उल्लेख करना चाहिए
दंड प्रक्रिया संहिता में FIR का उल्लेख
धारा 154 -संज्ञेय मामलो में इत्तिला:
यदि कोई भी मामला जो संज्ञेय मामला है यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक रूप में इत्तिला दी जाती हैं तो वह अधिकारी उसके निदेशाधिन लेखबद्ध कर ली जाएगी ओर इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जायेगी उस पर इत्तिला देने वाले के हस्ताक्षर किये जाएंगे। परंतु यदि किसी महिला द्वारा भारतिय दंड संहिता की धारा 326क, धारा 326 ख, धारा 354 धारा 354 क, धारा 354 ख, धारा 354 ग, धारा 354 घ, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ, धारा 376ड़ या धारा 509 के अधीन कोई भी इत्तिला दी जाती है, तो वह इत्तिला महिला पुलिस अधिकारी द्वारा ही अभिलिखित की जायेगी।
(2) इस उपधारा (1) के अधीन यदि कोई भी व्यक्ति लिखित में इत्तिला देगा तो उसको इत्तिला की प्रतिलिपि निशुल्क दी जाएगी
धारा 155-असंज्ञेय मामलों के बारे में इत्तिला और ऐसे मामलों का अन्वेषण-
जब कोई भी व्यक्ति पुलिस थाने के भार साधक अधिकारी को उस थाने कि सीमाओ के अन्दर कोई भी इत्तिला देता हैं तब उस पुलिस अधिकारी द्वारा इत्तिला का भ सार ऐसी पुस्तक में रखा जाएगा। कोई भी पुलिस अधिकारी किसी भी संज्ञेय मामले का अन्वेषण मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना नही करेगा। कोई भी पुलिस अधिकारी ऐसा आदेश मिलने पर ही वारंट के बिना गिरफ्तारी करने के सिवाय उस मामले के अन्वेषण से संबंधित वैसी ही शक्तियों का प्रयोग कर सकता है, जैसे पुलिस थाने का भारसाधक संज्ञेय मामलो में कर सकता है जहाँ मामले का संबंध ऐसे अपराधों से है जिसमें दो या दो से अधिक अपराध है, जिसमे कम से कम एक संज्ञेय है, वहां अन्य अपराधों को असंज्ञेय माना जाएगा।
जब पुलिस एफआईआर दर्ज न करे तो क्या करना चाहिए
यदि कभी भी पुलिस आपकी रिपोर्ट देने के बाद भी एफआईआर दर्ज न करे तो आप घबराये नही सबसे पहले पुलिस को सम्पूर्ण घटना बता कर रिपोर्ट दर्ज करने को कहे यदि फिर भी आपकी एफआईआर दर्ज नही की जाती तब आप वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को एक रिपोर्ट भेजे रिपोर्ट वही होनी चाहिए जो आपने पुलिस थाने के भार साधक अधिकारी को दी थी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक महोदय से प्रार्थना करे की कोई भी उचित कार्यवाही की जाये, लेकिन यदि फिर भी कोई भी कार्यवाही नही की जाती तब आप अपने क्षेत्र के न्यायालय में दंड प्रक्रिया संहिता 156(3) के अन्तगर्त वाद दायर कर सकते हैं |
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) क्या हैं?
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) यह बताती है की धारा 190 के अधीन सशक्त किया गया कोई भी मजिस्ट्रेट पूर्वोक्त प्रकार के अन्वेषण का आदेश कर सकता है अर्थात यदि पुलिस अधिकारी द्वारा किसी भी व्यक्ति की एफआईआर दर्ज नही की जाती तब वह व्यक्ति न्यायालय से इन्साफ़ पाने के लिए अपना वाद धारा 156(3) के तहत दर्ज कराया जाता हैं, न्यायालय का मजिस्ट्रेट उपरोक्त 156(3) को पूर्ण रूप से पढ़कर पुलिस अधिकारी के लिए आदेशित करेगा रिपोर्ट के लिए, रिपोर्ट आने के बाद न्यायालय का मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के बयान दर्ज करेगा जिसमे 156(3) के तहत मुकदमा दायर किया है, व उसके बाद गवाहों के बयान दर्ज करने के बाद सम्पूर्ण 156(3) को देखते हुए न्यायालय के मजिस्ट्रेट पर निर्भर करेगा की वह उस 156(3) को स्वीकार करे या अस्वीकार।
यदि किसी व्यक्ति ने आपके खिलाफ झूठी एफआईआर दर्ज़ कर दी तो क्या करना चाहिए।
अक्सर देखा गया है की लोग पुरानी रंजिश व पुरानी लड़ाई का बदला लेने के लिए झूठी एफआईआर दर्ज़ कर देते हैं, ऐसे में निर्दोष व्यक्ति को सजा हो सकती हैं, व कुछ ऐसे विद्यार्थियों के खिलाफ भी झूठी एफआईआर दर्ज़ करा देते हैं जो मेधावी होते है, इससे उनको भविष्य में नोकरी पाने में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं, व विद्यार्थियों का चरित्र प्रमाण पत्र नही बन पता, परंतु यदि विवेक से काम लिया जाए तो उस झूठी एफआईआर को रद्द (Quash) कराया जा सकता है, उस व्यक्ति को चाहिए की वह अपनी बेगुनाही के सारे सबूत इक्कठे कर के अपने अधिवक्ता के माध्यम से उच्च न्यायालय में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत याचिका डाल सकता हैं, व अपनी इस याचिका में न्याय की मांग कर सकता है, व परिस्थितियों को उचित ढंग से बताकर बेगुनाही के सबूतों के जरिये वह व्यक्ति उच्च न्यायालय से इन्साफ पा सकता हैं।
यदि आपकी बेगुनाही साबित हो जाए तो झूठी एफआईआर के लिए मानहानी का वाद दायर कर सकते हैं
यदि मननीय उच्च न्यायालय द्वारा आपको बेगुनाह साबित कर एफआईआर को रदद् घोषित कर दिया है, परंतु आपकी सामाजिक प्रतिष्ठिता व ख्याति को इससे क्षति हुई हैं, तब आप उस व्यक्ति पर भारतिय दण्ड संहिता की धारा 499 के अंतर्गत मानहानी का वाद दायर कर सकते हैं।तब उस व्यक्ति को भारतिय दण्ड संहिता की धारा 500 के अंतर्गत 2 वर्ष तक की सज़ा या जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।
भरतीय दंड संहिता की धारा 211 के तहत झूठी एफआईआर दर्ज़ कराने वाले व्यक्ति पर कार्यवाही
भरतीय दंड संहिता की धारा 211 बताती हैं की ” क्षति करने के आशय से अपराध का मिथ्या आरोप” जब कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के ख़िलाफ़ कोई भी ऐसी एफआईआर दर्ज़ कराता हैं जो मिथ्या हैं उसका कोई भी न्यायसंगत या विधिपूर्ण आधार नही हैं व उस पर मिथ्या आरोप लगाता हैं तब वह व्यक्ति दोनों में से किसी भी भाँति के कारावास से जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकती हैं या जुर्माने से या दोनों से दण्डित किया जाएगा। परंतु यदि दाण्डिक कार्यवाही मृत्यु, आजीवन करावास या सात वर्ष से अधिक के मिथ्या आरोप का हो तो वह व्यक्ति दोनों में से किसी भाँति के कारावास से जिसकी अवधि सात वर्ष तक हो सकती है दोनों से दण्डित किया जाएगा।
जिस पुलिस अधिकारी ने झूठी एफआईआर लिखी हैं उसे खिलाफ कार्यवाही
यदि पुलिस अधिकारी को सम्पूर्ण घटना का पूर्ण ज्ञान होता हैं की आप उस समय घटना पर नही थे जब घटना घटित हुई है, परंतु फिर भी पुलिस अधिकारी द्वारा आपको झूठा फसाया गया हो, परंतु उच्च न्यायालय द्वारा आपको बेगुनाह साबित कर दिया गया हो तब आप भारतिय दण्ड संहिता की धारा 182 के तहत उस पुलिस अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही कर सकते हैं।जिसमे यदि ये सिद्ध हो जाएं की ये झूठी एफआईआर दर्ज़ की है पुलिस अधिकारी ने तो उसको किसी भी भांति के कारावास से जिसकी अवधि 6 मास तक की हो सकती हैं या जुर्माने से जो एक हज़ार तक हो सकता है, या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
भारतिय दण्ड संहिता धारा 182 क्या हैं?
धारा 182 बताती हैं की यदि कोई भी इस आशय से कोई भी मिथ्या इत्तिला देना की लोक सेवक अपनी विधिपूर्ण शक्ति का उपयोग इस तरह से करता है की दूसरे व्यक्ति को क्षति हो जाए।
झूठी एफआईआर से जो क्षति हुई हैं उसका प्रतिकर लेना
यदि आपके खिलाफ झूठी एफआईआर की गयी थी परंतु आपके ख़िलाफ़ कोई भी सबूत नही हैं ओर न ही कोई गवाह हैं तब यदि मजिस्ट्रेट द्वारा आपको निर्दोष साबित कर के छोड़ दिया जाता है तब आप दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 250 के अंतर्गत प्रतिकर के लिए मांग कर सकते हैं ।तब मजिस्ट्रेट उसके लिए प्रतिकर के आदेश पारित कर सकता है।
(धारा 250-उचित कारण के बिना अभियोग के लिए प्रतिकर)
भारतिय संविधान के अनुच्छेद 226 द्वारा एफआईआर रदद् कराने के लिए याचिका-
भारतिय संविधान के अनुच्छेद 226 में 5 प्रकार की रिट दी गयी हैं कोई भी पीड़ित व्यक्ति इन रिटो का प्रयोग कर के न्यायालय में जो मुकदमा चल रहा हैं जो झूठी एफआईआर से संबंधित हैं, उसको रद्द उच्च न्यायालय द्वारा रद्द करा सकता हैं।
- बंदी प्रत्यक्षीकरण-यदि किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर के बिना कारण बताए उसको बंद रखा जाता हैं अर्थात यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता हैं जिसको अवैध रूप से बंदी बनाया जाता हैं तब उस व्यक्ति की ओर से कोई भी व्यक्ति याचिका दायर कर सकता हैं की कारण बता कर 24 घण्टों के अन्दर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करे।
- परमादेश-इसमे ऊपरी अदालतें निचली अदालतों को command देती हैं यह उस समय जारी की जाती हैं न्यायालय द्वारा जब कोई भी लोक सेवक अपने कर्तव्य का निर्बहन ठीक रूप से नही करता, इसमे अधिकारी को न्यायालय निर्देश करता हैं की अपने कर्तव्य का पालन करे।
जब कोई भी पुलिस अधिकारी अपने कर्तव्यों का निर्वहन न करे तो यह याचिका दायर की जा सकती हैं। - प्रतिषेध लेख-यह याचिकासर्वोच्च न्यायालय द्वारा तथा उच्च न्यायालयो के लिए जारी की जाती हैं।
- उत्प्रेषण-इसके द्वारा subordinates courts को यह निर्देश दिया जाता हैं की लंबित मुकदमों के न्याय निर्णयन के लिए उनको वरिष्ठ न्यायालय में भेजे अर्थात इस याचिका में उच्च न्यायालय को अधिकार हैं की एफआईआर को Quash कर सकता हैं।
- अधिकार पृच्छा लेख-जब कोई भी व्यक्ति वह किसी भी ऐसे अधिकारी के रूप में कार्य करने लगता हैं, जिसके बारे में उसको भी अधिकार ही नही हैं की वह यह कार्य को करे तब न्यायालय में यह याचिका दायर कर के उसी उसके अधिकार के कार्यों का पता किया जाता हैं।