वो रही एक अनसुलझी कहानी
ना लज़्ज़ा,ना अँखियों में शर्म-पानी
जाने काहे को जहां में आया
जाने ना कुछ,मौज-ही-मौज समाया
अलबेला-सा वो बचपन…..
हाय !अँखियाँ भर-भर जाती हैं
जब-जब यादें आती हैं
वो आँखों से गिरते मोती
रोने पर जग जाए माँ मोरी सोती
गीली यादों का वो बचपन……
जाने दौलत क्या होती है?
नन्ही अँखियाँ तो प्यारी नींद में सोती हैं
माँ की हाथों से खाना
टूटी-फूटी आवाजों में,
वो खेलों के गीत गाना
हाय! मस्ती में गुनगुनाता वो बचपन….
हर बात पे बहाने बनाता
वाह रे! गज़ब दलीलें देता
मैं तो था अकेला ज्ञानी
अब तो सोच के भी होती है हैरानी
वाह रे ! मेरा वो बचपन……
ना थी कभी कोई फ़िक्र
बचपन तो है एक दिल छूता ज़िक्र
पल-पल बहना से झगड़ा
बनाता था रिश्ता तगड़ा
कहाँ गया प्यारा-सा झगड़ता वो बचपन…..
बचपन में ही ज़न्नत है बसी
आज वो यादें मन में फंसी
उम्र की राहें नहीं जाती वापस
काश! फिर उसी डगर को जाता ये बेबस
वो बचपन ! मेरा बचपन ……
वो बचपन ! मेरा बचपन
कैसे भुलाए उसे ये मन ?
वो मासूम-सा बचपन
वो बचपन ! मेरा बचपन……
– सन्नी कुमार सिन्हा
सारांश
प्रस्तुत कविता ‘बचपन’ के माध्यम से जीवन के स्वर्णिम काल कहे जाने वाले बचपन की चर्चा की गयी है।उस अवस्था को एक अनसुलझी कहानी की तरह बताते हुए ये कहने का प्रयास किया गया है कि एक बालक को कोई लाज़-शर्म नहीँ होता एवं इस संसार और अपने कर्तव्यों की परवाह नहीं होती।उसके मन में सिर्फ और सिर्फ मौज रहता है।बचपन की यादें आँखों में आँसू भर देने वाली होती हैं।साथ ही बचपन में आँसू आने पर माँ के प्यार का वर्णन किया गया है कि रोने पर सोयी हुई माँ भी चुप कराने उठ जाती है ।बच्चे को दौलत की कोई लालच नहीं होती,वो आनंद से सोता है,माँ की हाथों से खाता है और अपनी तोतली एवं टूटी-फूटी आवाज़ में गुनगुनाते हुए मस्त रहता है।बचपन में हमें बहाने बनाने की आदत होती है ।हम ऐसी-ऐसी दलीलें पेश करते हैं मानो माँ-बाप सब बेवकुफ हों और सिर्फ हम चतुर हों।अब यह सोचकर हैरानी होती है कि हम कितने ज्ञानी थे?
बचपन ऐसा बेफिक्री भरा होता है कि उसका ज़िक्र-मात्र ही हमारा दिल छू जाता है।उस उम्र में भाई-बहन के झगड़े तो होते हैं, परन्तु उससे रिश्ते बिगड़ते नहीँ हैं।रिश्ते और भी मजबूत और प्यारे हो जाते हैं।
ज़न्नत की बात करें तो बाल लीलाओं की यादें ही ज़न्नत सा सुकून दे जाती हैं।ऐसे में सोचने योग्य बात ये है कि जब यादें ज़न्नत की तरह सुकून देती हैं तो बचपन तो वाकई अपने-आप में ज़न्नत ही था।उम्र एक ऐसा सफ़र है कि वो हमें वापस मुड़ने नहीं देता है।काश!अगर वापस जाना संभव होता तो ये चिंता और तनाव से ग्रसित बेबस जीवन को छोड़ मैं वापस उसी बचपन की बेफिक्री को अपना लेता।बचपन हमारे जीवन का एक ऐसा सुहाना और मासूम हिस्सा है जिसे हम किसी कीमत पर भूल नहीँ सकते।
उपरोक्त बाल लीलाओं और सुनहरी घटनाओं के माध्यम से मैंने अपने बचपन को पंक्तियों में समटने का प्रयास किया है।
This article was contributed by Sunny Kumar Sinha on English Isrg Knowledge Base