किशोरावस्था: मनुष्य अपने जीवन चक्र में तीन दौर से गुजरता है और ये तीनों दौर उसके जीवन में कुछ ऐसे अनमोल खट्टे-मीठे पल और यादें संजोता है जो उसके जीवन की डायरी के सफेद पन्नों पर तराशे हुए सुनहरे शब्दों की तरह होता है, जो उसके जीवन की शर्बत में घुली हुई मिठास की तरह होता है। इन सब का एहसास इंसान को उस दौर से गुजरते वक्त नही होता पर तब होता है जब वह अपने जीवन की सारी सीढ़ियोँ को पार कर ऐसे दौर में पहुँचता है जब उसे जीवन में आए उतार-चढ़ाव का अनुभव होता है और वह एक अनुभवी इंसान के रूप में जाना जाता है।
बाल-अवस्था, व्यस्क- अवस्था एवं वृद्ध- अवस्था वे तीन दौर हैं जो इंसान को सुख-दुख से वाकिफ कराने से लेकर जीवन की वास्तविकता का भी अनुभव कराते हैं। इन सब के बीच जीवन में एक ऐसा उम्र, एक ऐसा मोड़ आता है जहाँ मनुष्य ना तो सही गलत को पहचान पाता है, ना ही उसमें परिपक्वता आती है और ना ही बचपना रहता है। इस दौर या उम्र को हम किशोरावस्था कहते हैं। 13 वर्ष से 19 वर्ष तक की छोटी अवधि वाला यह दौर बड़ा ही चुनौतीपूर्ण और व्यग्र साबित होता है। ना वास्तविकता को स्वीकार करने की समझ और ना ही हिम्मत। ऐसा प्रतीत होता है जैसे खुद से ज्यादा कोई हमें समझ नही सकता।
चिड़चिड़ापन और हठ से भरा हुआ यह उम्र हर कुछ को ग़लत समझ बैठता है। कई बार बच्चे अकेलापन महसूस करते हैं। सच्चाई यह है कि उस वक्त इंसान उन चुनौतियों से लड़ने के लिए तैयार नही होता और जल्दबाजी मे कुछ गलत कर बैठता है। इस उम्र को समझदारी से पार करना एक बच्चे के लिए उतना ही मुश्किल है जितना उसके अभिभावक के लिए उसकी उम्र, उसकी इच्छाएं और मनोभाव को समझ कर उसे सही राह दिखना।
कई बार ऐसा होता है जब ऐसे उम्र में बच्चे अपने राह से विमुख हो कर एक ऐसा ग़लत निर्णय ले लेते हैं जो उनके जीवन के सफेद चादर पर काले धब्बों की तरह कभी न मिटने वाले दाग़ छोड़ जाता है अर्थात एक बुरे भाव का प्रतीक होता है। कई बार किशोरावस्था में बच्चे कुछ ऐसा कार्य करने को अग्रसर होते हैं जिनका उन्हें अंदाजा भी नहीं होता कि वे कितने खतरनाक हैं। न सिर्फ उनका करियर बर्बाद होता है बल्कि उनकी पूरी जिंदगी तबाह हो जाती है। इस व्यग्रता, परेशानी, मानसिक बदलाव का कारण कही न कही अभिभावकों का बच्चों के प्रति कड़ा व्यवहार, रुखापन, अपशब्दों का प्रयोग भी है। साथ ही बच्चों की संगति का भी असर पड़ता है। इसके लिए बच्चों से खुल कर बातें करनी चाहिए। उनके मनोभाव को जानना, मनोबल को बढ़ाना जरूरी है। एक ऐसा खुलापन हो जहाँ बच्चे अपने मन की बात बताने में हिचकिचाहट महसूस न करें। इसके साथ ही वह संयमित रह कर अपने संस्कार भी न भूलें।
समय के साथ बदलाव हर उम्र में आवश्यक है पर बदलाव ऐसा हो जो इंसान के चरित्र को संवारे न कि बिगाड़े। किशोरावस्था के दौरान बच्चों में मानसिक बदलाव तो सामान्य है पर जरूरी है इसे सकारात्मक रूप से स्वीकार करना। खास बात यह है कि इस मुश्किल दौर में बिताए हुए खट्टे मीठे पल लोग अक्सर वृद्धावस्था में याद कर एक पल के लिए युवा हो जातें हैं। जिन्दगी की गाड़ी बचपन, यौवन और बुढ़ापे जेसे तीन रास्तों से गुजर कर एक लम्बी दूरी तय करती है।
जब तक यह जीवन चक्र चलता है हमें बहुत कुछ अनुभव और एहसास करने को मिलता है जो वाकई अमूल्य हैं। इसलिए हर एक दौर की तरह हर बच्चे को अपने किशोरावस्था के दौर को पूरे उत्साह, उमंग और समझदारी के साथ व्यतीत करना चाहिए। ये वापस लौट कर तो नहीं आएँगे पर इनको याद कर चेहरे पर एक मुस्कान की रेखा जरुर होगी।