लड़की होने का एहसास: एक अफसोस या गर्व की बात

आज का दौर हरिफाइ का है — इसमे कोइ शक नहीं, ज्यादा से ज्यादा लड़कीया आज पढ लिख के अपनी अलग पेहचान बनाने मे लगी हुइ है। उनके माँ- बाप भी समझ गऐ है, चाहे वो गांव के अनपढ ही क्यों ना हो, पढाई और रोजगार कीतना जरुरी हो गया है। जहा पुसरला वेंकट सिंधु, सानिया, पि्यंका और मेरी कोम जैसी महिलाए आंतरराष्टृिय स्तर पर भारत का नाम रोशन कर रही है, जो हमारे लिये बड़े गर्व की बात है। वही उसी देश मे महिलाओ का सामाजिक दर्जा आज भी पुरषो से नीचे का माना जाता है।

हर थोडे सेकंड पर रेप की घटना के समाचार सामने आते है। ये यह बयान करता है की आदमी अपने को अभी भी प्नमुख मानता है । वह महिला को आज भी एक वस्तु या उपभोग का साधन समझता है। ज्यादातर लड़किया घर से बाहर नीकलने लगी है, अकेले सफर करती है,देर रात तक काम करती है, ऐसे मे जागृतता आने के बजाय बलात्कार, छेड़खानी के किस्से बढते चले जा रहे है। ये सब रोकने के लिये कोइ कानुन नहीं है, सिफॅ ये सब हो जाने के बाद का हि कानुन है।

अगर कोई पिडी़त लड़की छेड़खानी सह जाये तो इन लोगो को बढावा मिल जाता है। सड़क छाप लड़को के द्वारा बोले जाने वाले अश्लील शब्द को अगर नजर अंदाज करते हैं, तो इनकी अक्कल ठेिकाने नहि आती; और ज्यादा लड़किया उनकी ये वतॅणुक का शिकार बनती है। कितुं सवाल ये उठता है कि इनका विरोध करें तो करें किस हद तक। कई बार उलटा भी हो सकता है, लड़की को और खतरनाक हादसे से भी गुजरना पड़ सकता है। मारपीट, बलात्कार और ऐसीड अटैक जैसे अन्जाम आ सकते है। ऐसा कुछ अगर हुवा तो उसे और उसके घर वालो पर जिंदगी खत्म हो गई हो वैसी मुसीबत टुट पड़ती है। लडकी का मानसिक संतुलन मानो बिग़ड सा ही जाता हैै और उसे लगता है, कि उसका लड़की होना ही एक शाप है और सारी परेशानी की जड़ वही है। जो उसके व्यकतित्व को कमजोर बनाता है। ऐसा होने पर वह सामना नहीं कर पाती है और ऐसे में वह खुद को नुकसान भी पहुँचा सकती है।

अगर हमें अपनी होनहार बेटियों को बचाना है, तो समाज को ही आगे आना होगा। कोइ फिल्म का विरोध हो या आरञण की बात हो, तो हजारो की मेदनी जमा हो जाती है, पर इन बच्चीओ के लिए क्युं कोई कुछ नहीं करता, क्यों जब ऐसा समाज में होता है तो लोग उसी समय बिरोध करते? अगर उसको समान हक मिले हैं तो हर जगह बिना किसी खौफ के क्युं नहि जा सकती? वो जो चाहे वो पहन क्युं नहीं सकती? क्या ये हमारा कतॅव्य नहीं है की हम उन्हें एक सुरक्षित समाज दे। अंगे्जी मे एक कहावत है “चैरिटी बिगिन्स एट होम’ (Charity Begins at Home) इसका मतलब है की “परोपकार घर से आरंभ होता है ”

तो शरुआत अपने घर से हि करो — लडका-लडकी मे भेदभाव न रखिए। अगर जड़ मजबुत होगी तो फसल अच्छी ही रहेगी। लडको के मन मे यह न डालो की वो सुपीरीयर है। उनको औरतो की इज्जत करना सिखाइए। इसमे कोई संदेह नहीं की लड़किया लड़को से आगे नीकल रही हैं। पर कुछ की पृतिभा एसे मामले की वजह से अपना नूर खो बेठती हैं। जहा लड़कियो की परवरीष का सवाल है तो उन्हे आत्मरञण सीखाए। इस तरह की अनचाही मुसीबत से कैसे जुडे उसकी टृैनिंग दे। कराटै, कुशती या जुडो के कलासिस करवाये, ताकि वह नीड़र बन सके और अपनी रञा खुद कर सके। हम अगर एक बहतर कल अपने बच्चो को दे सके तो इससे बङी और क्या बात हो सक्ती है। आमीर खान बोलते हे ना दंगल मे ” हमारी छोरियां छोरो से कम हे के”

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